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एनके सिंह। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक में लोगों से एक भावपूर्ण अपील की थी कोरोना-सम्मत व्यवहार करने की और कहा, “लोग कहते हैं कि कोरोना की तीसरी लहर आने के पहले मौज-मस्ती कर लेते हैं। दरअसल हम बुलाएंगें तो ही कोरोना आएगा। कोरोना की तीसरी लहर को लेकर हमें रंचमात्र भी कोताही नहीं बरतनी होगी।” पीएम की इस भावना को सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने भी उत्तर प्रदेश सरकार की एक अपील सुनते हुए भरी अदालत में उधृत किया। लेकिन वही मोदी जब इसी राज्य के अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी गए तो राज्य के मुख्यमंत्री को कोरोना से लड़ने की “सफल रणनीति” की भूरी-भूरी प्रशंसा की। राज्य विधान-सभा के चुनाव लगभग आठ माह बाद होने हैं। प्रधानमंत्री ने अपने मुख्यमंत्री को गुड-प्रमाण-पत्र देते हुए लगभग सभी तथ्यों और सच्चाइयों को ताक पर रख दिया।
उप्र में 2020 कर्मचारियों की कोरोना संक्रमण से मौत
सच तो यह था कि इसी दिन राज्य सरकार ने कांवड़ यात्रा पर रोक लगाने की कोर्ट की अपेक्षा को ख़ारिज कर दिया था। इसी दिन यह राज्य कुल वयस्कों को टीका लगवाने में राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे चार करोड़ से कम था जिसमें पहली बार टीका लगवाने वाले 3.30 करोड़ थे और दोनों टीका लगवाने वाले 62.84 लाख। चालाकी से अफसरों ने केवल संख्या दी, प्रतिशत नहीं। इसी राज्य में “मां गंगा” की गोद में लाशें तैरती मिलीं जो देशी और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में कई दिनों तक सुर्खियां बनीं। इसी राज्य ने पंचायत चुनाव कराए जिसके कारण हजारों चुनाव-कर्मी हीं नहीं व्यवस्था में लगे अनेक विभागों के लोग कोरोना के शिकार हुए और अंतिम सांसें लेकर अपने परिवार को अनाथ कर गए। उस समय इसी सरकार ने कहा था कि चुनाव ड्यूटी में गए केवल चार शिक्षक ही कोरोना के कारण दुनिया छोड़ गए जबकि मीडिया लगातार हजारों शिक्षकों के बारे में रिपोर्ट देता रहा। दो माह बाद अब इसी सरकार ने माना कि 2020 कर्मचारियों की चुनाव ड्यूटी के दौरान कोरोना संक्रमण से मौत हुई जिनमें 957 शिक्षक थे और उन्हें 30 लाख रुपये अनुकंपा राशि के रूप में एक माह में दिया जाएगा।
कोरोना से मुकाबले में उप्र सरकार के कौशल की हकीकत
मोदी ने अपने भाषण में उत्तर प्रदेश की योगी-सरकार की तारीफ के पुल बांधते हुए कहा कि यहां भाई–भतीजावाद की जगह विकासवाद है। उन्हें मालूम होगा कि उनका ड्रीम प्रोजेक्ट “आयुष्मान” कोरोना में गरीबों का मुफ्त इलाज़ का दावा करता रहा। उत्तर प्रदेश के गवर्नेंस की एक और बानगी देखें। देश भर में आयुष्मान के जरिये कोरोना मरीजों के इलाज़ पर 2224 करोड़ रुपए खर्च हुए जिसका 95 प्रतिशत (2107 करोड़ रुपये) देश के चार दक्षिण भारतीय राज्यों और महाराष्ट्र ने खर्च किया जबकि बाकि पूरी देश ने मात्र पांच प्रतिशत। उसमें भी कर्नाटक में जहां कम आबादी और कम गरीब कार्ड-धारकों के बावजूद 1.50 लाख लोगों का इलाज आयुष्मान के जरिये हुआ वहीँ 1.25 करोड़ कार्ड धारक (यानी 7.5 करोड़ लोगों) वाले सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में केवल 875 मरीजों को इसका लाभ मिला क्योंकि निजी अस्पताल इन्हें भगा देते थे। यह है सरकार का कोरोना से लड़ने का कौशल। ध्यान रहे कि दक्षिण भारत के राज्यों के मुकाबले उत्तर भारत के राज्यों में कोरोना के मरीज को 42 गुना पैसा अपनी जेब से खर्च करना पड़ता था।
आस्था के वोट की खातिर कुंभ स्नान की इजाजत
“गुड गवर्नंस” और कोरोना से लड़ने के प्रति सरकारी उत्साह का एक और नमूना देखें। इस राज्य के पड़ोस में बसा उत्तराखंड भी चुनाव का मुन्तजिर है लिहाज़ा वहां कि सरकार ने भी हिन्दुओं की आस्था को वोट में तब्दील करने के लिए कुंभ-स्नान की इज़ाज़त दी। फर्जी टीके की रिपोर्ट का यह आलम था कि पंजाब के एक किसान के मोबाइल पर कोविन एप से एक सर्टिफिकेट आया जिसमें तस्दीक थी कि उन्हें कुंभ स्नान के दौरान हरिद्वार में टीका लगाया गया। गरीब किसान अपनी पूरी जिन्दगी में इस राज्य के आस-पास भी नहीं गया था। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय इस गड़बड़झाले की जांच करवा रहा है।
लोक हित के प्रति सरकारों की असंवेदनशीलता
अगर प्रधानमंत्री रंचमात्र भी कोताही नहीं चाहते थे तो क्या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को कांवर यात्रा रोकने की सलाह नहीं दे सकते थे और वह भी इस तथ्य के मद्देनज़र कि डब्ल्यूएचओ ने उसी दिन घोषणा की कि दुनिया में तीसरी लहर दस्तक दे चुकी है। पूरी दुनिया में कुंभ-स्नान, पंचायत चुनाव और पश्चिम बंगाल चुनाव को दूसरी लहर का सुपर-स्प्रेडर माना गया। फिर प्रमाण-पत्र देने के पहले यह नहीं भूलना चाहिए था कि “मां गंगा” पर लाशें इसी राज्य में बहाई गईं थीं जिसे पूरी दुनिया के लोगों ने देखा था। द्वंदात्मक प्रजातंत्र में चुनाव के दौरान अपनी सरकारों की तारीफ जरूर की जानी चाहिए लेकिन अगर वह सत्य से दूर-दूर तक कोई रिश्ता न रखे तो कहने वाले की विश्वसनीयता घटती है। क्या जरूरी नहीं कि तीसरी लहर रोकने के लिए चुनावी हित को बला-ए-ताक रखते हुए स्वयं केंद्र सरकार अपने अधिकारों के तहत कांवर यात्रा पर तत्काल रोक लगाए। क्या यह जनमत से चुनी सरकार की लोकहित के प्रति असंवेदनशीलता नहीं होगी कि सुप्रीम कोर्ट को इसका संज्ञान लेना पड़े।
क्या कोताही न बरतने का भाव सिर्फ जनता के लिए है?
क्या देश का प्रधानमंत्री अपनी भावनाएं दिक्- व काल सापेक्ष रखता हुआ 24 घंटों में बदल सकता है? पूरी देश ने देखी प्रधानमंत्री की “रंच-मात्र भी कोताही न करने की” पहली अपील और 24 घंटे बाद चुनाव वाले राज्य में अपने मुख्यमंत्री को विकासवाद का संवाहक बनाना और कोरोना के खिलाफ जंग में सफलता का प्रतीक करार देना। क्या यह सच नहीं कि कोरोना महामारी को राष्ट्रीय आपदा घोषित किया गया है? क्या यह सच नहीं कि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) का अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है और इसके आपदा प्रबंध के लिए बने कानून के सेक्शन 6(1) में प्राधिकरण को पूरा अधिकार हैं वो आपदा के दौरान किसी भी राज्य में कोई भी आयोजन करने से रोक सकता है? तो क्या रंच-मात्र भी कोताही न बरतने का भाव सिर्फ जनता के लिए था केंद्र सरकार या राज्य की अपनी सरकारों के लिए नहीं क्योंकि सबसे बड़ा सूबा हिंदू मतों का मोहताज़ है? क्या इससे देश के सबसे मकबूल नेता की विश्वसनीयता कम नहीं होगी?(लेखक देश के जानेमाने पत्रकार और नेशनल ब्रॉडकास्ट एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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